परिचय: एक पिता की सोच, समाज पर सवाल
शादी डॉट कॉम (Shaadi.com) के संस्थापक और शार्क टैंक इंडिया के जाने-माने जज अनुपम मित्तल ने एक ऐसा कदम उठाया है जो पारंपरिक सोच को चुनौती देता है। हाल ही में उन्होंने अपनी बेटी के नाम को लेकर एक खास बात साझा की, जिसने इंटरनेट पर चर्चा को जन्म दिया। उन्होंने बताया कि उन्होंने अपनी बेटी का मिडल नेम कुछ अलग रखने का निर्णय इसलिए लिया क्योंकि वे नहीं चाहते कि उनकी बेटी की पहचान केवल पुरुषों से जुड़ी हो। यह विचार सामाजिक रूप से काफी प्रासंगिक और प्रेरणादायक बन गया है।
मिट रही है पितृसत्तात्मक सोच की लकीरें
अनुपम मित्तल का यह कदम इस ओर संकेत करता है कि आज के माता-पिता अपने बच्चों को पितृसत्तात्मक ढांचे से अलग पहचान देना चाहते हैं। भारत में आमतौर पर बच्चों के नाम पिता के नाम से जुड़े होते हैं, जिससे उनकी पहचान पारिवारिक पुरुष सदस्य से जुड़ती है। लेकिन मित्तल ने इस परंपरा को चुनौती दी और अपनी बेटी को एक अलग पहचान देने की कोशिश की।
उन्होंने यह भी कहा कि समाज को यह समझना जरूरी है कि किसी की पहचान केवल उनके पिता या पति से नहीं होनी चाहिए, खासकर जब बात एक महिला की हो। यह सोच दर्शाती है कि अब समाज में बदलाव की शुरुआत हो चुकी है और उसमें तकनीक, शिक्षा और समानता की सोच रखने वाले लोगों की अहम भूमिका है।
"ब्रो" से "ड्यूड" तक: बेटी के साथ मज़ेदार रिश्ता
एक हालिया एपिसोड में अनुपम मित्तल ने यह भी शेयर किया कि उनकी बेटी उन्हें पहले "ब्रो" कहकर बुलाती थी, फिर "नो ब्रो", और अब "ड्यूड" कहने लगी है। यह बात उन्होंने हंसी-मजाक में कही लेकिन इससे यह भी साफ झलकता है कि उनके और उनकी बेटी के बीच एक दोस्ताना और खुला रिश्ता है।
यह दर्शाता है कि आज के माता-पिता अपने बच्चों के साथ दोस्त की तरह व्यवहार करना पसंद करते हैं, जिससे बच्चों को अपने विचार रखने की आज़ादी मिलती है और उनमें आत्मविश्वास भी बढ़ता है।
महिलाओं से मिली प्रेरणा
अनुपम मित्तल ने एक इंटरनेशनल विमेंस डे पर अपनी पोस्ट में यह स्वीकार किया था कि उनकी जिंदगी में जितने भी अहम सबक आए, वो अधिकतर महिलाओं से मिले। उन्होंने लिखा कि उनकी दादी, माँ, बहनें, पत्नी और अब बेटी ने उन्हें वह बनाया है जो आज वह हैं।
उन्होंने खुद को एक "फेमिनिस्ट" कहा और बताया कि उनके घर में शुरू से ही महिलाओं की भूमिका प्रमुख रही है। उनके पिता के अलावा घर में कोई पुरुष नहीं था और इसलिए वह महिलाओं के बीच रहकर बड़े हुए हैं। यही वजह है कि उनके भीतर महिलाओं के प्रति सम्मान और समानता की भावना स्वाभाविक रूप से विकसित हुई है।
क्या यह बदलाव समाज में नई सोच लाएगा?
अनुपम मित्तल जैसे प्रभावशाली लोगों द्वारा उठाया गया यह कदम समाज को सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम अब भी अपने बच्चों की पहचान को किसी पुरुष के नाम से जोड़ना जरूरी मानते हैं? क्या महिलाओं को अपनी पहचान बनाने का अधिकार नहीं है?
उनकी बेटी के मिडल नेम को लेकर किया गया यह फैसला छोटे स्तर पर सही लेकिन समाज में बड़ी सोच को दर्शाता है। यह केवल एक नाम बदलने की बात नहीं है, यह पहचान, आज़ादी और बराबरी की भावना को स्थापित करने की पहल है।
निष्कर्ष: एक छोटी शुरुआत, बड़े बदलाव की ओर
अनुपम मित्तल का यह कदम कई माता-पिता के लिए प्रेरणा बन सकता है। जब समाज में ऐसे लोग अपनी सोच को सार्वजनिक रूप से साझा करते हैं, तो वह कई लोगों को प्रेरित करता है कि वे भी परंपराओं को प्रश्नों की कसौटी पर कसें और अगर जरूरत हो तो उसमें बदलाव लाएं।
बेटी को एक स्वतंत्र पहचान देना, ना केवल एक प्रगतिशील विचार है, बल्कि यह उस बदलाव की नींव है, जो आने वाले समय में समाज में लैंगिक समानता की ओर ले जा सकता है।
यह कदम सिर्फ नाम बदलने का नहीं, सोच बदलने का है।