बंगाल पर सुप्रीम कोर्ट की चुप्पी: क्या न्यायपालिका की निष्पक्षता पर उठने लगे हैं सवाल?

पश्चिम बंगाल में बढ़ती हिंसा पर सुप्रीम कोर्ट की खामोशी को लेकर सवाल

हाल ही में पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद सहित कई जिलों में सांप्रदायिक तनाव और हिंसा की घटनाएं सामने आई हैं। सोशल मीडिया और समाचार माध्यमों में हिंसक झड़पों, आगजनी और तोड़फोड़ की कई वीडियो और रिपोर्ट वायरल हो रही हैं। ऐसे समय में देश की सर्वोच्च न्यायपालिका यानी सुप्रीम कोर्ट की चुप्पी पर कई राजनीतिक और कानूनी विशेषज्ञों ने चिंता जताई है। बिहार से राज्यसभा सांसद और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील मनन कुमार मिश्रा ने एक साक्षात्कार में कहा, “मणिपुर की घटनाओं पर सुप्रीम कोर्ट स्वतः संज्ञान लेता है, लेकिन बंगाल की हिंसा पर आंख मूंद लेता है।”

मणिपुर बनाम बंगाल: न्यायिक हस्तक्षेप की तुलना



2023 में मणिपुर में जातीय हिंसा भड़कने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने त्वरित कार्रवाई करते हुए स्वतः संज्ञान लिया था। कोर्ट ने राज्य सरकार को स्थिति नियंत्रित करने के आदेश दिए और पीड़ितों को राहत पहुंचाने की पहल की। न्यायिक सक्रियता की यह मिसाल देश भर में सराही गई। लेकिन जब इसी तरह की घटनाएं बंगाल में घट रही हैं—जहां अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समुदायों के बीच संघर्ष लगातार सामने आ रहे हैं—तो वैसी ही तत्परता की अपेक्षा की जा रही है। दुर्भाग्य से सुप्रीम कोर्ट की ओर से अब तक कोई स्वतः संज्ञान या सुनवाई की पहल नहीं हुई है।

क्या सुप्रीम कोर्ट की चुप्पी राजनीतिक कारणों से है?

कई लोगों का मानना है कि बंगाल की घटनाओं पर सुप्रीम कोर्ट का मौन रहना न्यायिक निष्पक्षता पर सवाल खड़े करता है। सोशल मीडिया पर भी यह मुद्दा गर्म है कि क्या न्यायपालिका राजनीतिक रूप से पक्षपाती हो गई है? यह चिंता इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि संविधान के अनुसार न्यायपालिका को स्वतंत्र और निष्पक्ष रहना चाहिए, और सभी राज्यों के नागरिकों को समान अधिकार और सुरक्षा मिलनी चाहिए।

बंगाल में क्या हो रहा है?

मुर्शिदाबाद, बीरभूम, मालदा और नदिया जैसे जिलों में हाल के दिनों में कई धार्मिक झड़पें देखने को मिली हैं। इन घटनाओं में मंदिरों और मस्जिदों पर हमले, दुकानों में आगजनी और कई आम नागरिकों की मौत की खबरें आई हैं। पुलिस प्रशासन इन घटनाओं पर नियंत्रण पाने में असफल नजर आ रहा है, और इंटरनेट सेवाएं भी बार-बार बंद की जा रही हैं, जिससे जानकारी का प्रवाह बाधित हो रहा है।

कानूनी विशेषज्ञों की राय

वरिष्ठ अधिवक्ताओं और पूर्व न्यायाधीशों का कहना है कि यदि किसी राज्य में सार्वजनिक व्यवस्था चरमरा जाती है और वहां हिंसा लगातार बढ़ रही हो, तो सुप्रीम कोर्ट को स्वतः संज्ञान लेना चाहिए। यह न केवल नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है बल्कि न्यायपालिका की जवाबदेही को भी दर्शाता है। सुप्रीम कोर्ट की चुप्पी न केवल उसके रुख पर सवाल उठाती है, बल्कि नागरिकों में असुरक्षा की भावना को भी जन्म देती है।

मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका

टीवी चैनलों और डिजिटल मीडिया प्लेटफार्मों पर बंगाल हिंसा की कवरेज मणिपुर की तुलना में बहुत कम हो रही है। वहीं सोशल मीडिया पर लगातार वीडियो, फोटो और रिपोर्ट शेयर किए जा रहे हैं जिनमें बंगाल की हालत गंभीर बताई जा रही है। कई यूजर्स ने हैशटैग #BengalBurning और #WhereIsSupremeCourt जैसे ट्रेंड शुरू कर दिए हैं। इससे स्पष्ट होता है कि जनता न्यायपालिका से सक्रिय भूमिका की अपेक्षा कर रही है।

क्या अब भी सुप्रीम कोर्ट को कदम नहीं उठाना चाहिए?

देश की एकता और अखंडता के लिए जरूरी है कि जब भी कहीं हिंसा या असामान्य हालात पैदा होते हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय बिना किसी दबाव के हस्तक्षेप करे। बंगाल की घटनाएं इस समय उस स्तर तक पहुंच चुकी हैं जहां मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की पहल न केवल पीड़ितों को न्याय दिला सकती है बल्कि यह संदेश भी दे सकती है कि न्यायपालिका सभी के लिए समान रूप से खड़ी है।

निष्कर्ष: न्यायपालिका की निष्पक्षता जरूरी

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में न्यायपालिका की निष्पक्षता लोकतंत्र की रीढ़ होती है। यदि न्यायिक संस्थाएं किसी एक राज्य के मामले में सक्रिय होकर तुरंत कार्रवाई करती हैं, तो उन्हें अन्य राज्यों में हो रही घटनाओं में भी समान तत्परता दिखानी चाहिए। बंगाल की घटनाओं पर सुप्रीम कोर्ट की चुप्पी को अब केवल कानूनी ही नहीं बल्कि नैतिक दृष्टिकोण से भी चुनौती दी जा रही है।

यदि आप इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से कार्रवाई की मांग करना चाहते हैं, तो आप उनकी आधिकारिक वेबसाइट पर जाकर अपनी राय और याचिका भेज सकते हैं। यह देश के प्रत्येक नागरिक का अधिकार है कि वह न्याय की मांग करे और अपने लोकतंत्र को मजबूत बनाए।