भारत के राष्ट्रपति की गरिमा और संवैधानिक मर्यादा पर मंथन

भारत का संविधान दुनिया के सबसे विस्तृत और शक्तिशाली लोकतांत्रिक दस्तावेजों में से एक है। इस संविधान के अंतर्गत भारत के राष्ट्रपति का पद सर्वोच्च और अत्यंत गरिमामय होता है। राष्ट्रपति न केवल देश के प्रथम नागरिक होते हैं, बल्कि वे भारतीय गणराज्य की एकता, अखंडता और लोकतंत्र के संरक्षक भी माने जाते हैं। वे यह शपथ लेते हैं कि संविधान की रक्षा, पालन और संरक्षण करेंगे, और यह शपथ केवल उन्हें और राज्यपालों को ही दी जाती है।

राष्ट्रपति: संसद का प्रथम अंग



भारतीय संविधान के अनुसार, संसद तीन अंगों से मिलकर बनती है — राष्ट्रपति, लोकसभा और राज्यसभा। यह बात स्पष्ट रूप से संविधान के अनुच्छेद 79 में उल्लिखित है। इसका तात्पर्य है कि संसद का पहला अंग राष्ट्रपति होता है, न कि लोकसभा या राज्यसभा। फिर भी हाल के वर्षों में ऐसा प्रतीत हुआ है कि राष्ट्रपति के संवैधानिक अधिकारों और भूमिका को सीमित करने या दरकिनार करने की प्रवृत्ति सामने आई है।

हालिया घटनाएँ और चिंताएँ

हाल ही में एक विधेयक को लेकर जो निर्णय लिया गया, उसमें राष्ट्रपति को आदेश दिया गया — यह स्थिति बेहद चिंताजनक और असंवैधानिक प्रतीत होती है। यह न केवल भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद की मर्यादा का हनन है, बल्कि लोकतंत्र के भविष्य पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। सवाल यह उठता है कि क्या राष्ट्रपति केवल एक औपचारिक हस्ताक्षरकर्ता बनकर रह जाएंगे?

और इससे भी बड़ी चिंता यह है कि यदि राष्ट्रपति किसी विधेयक पर समय पर हस्ताक्षर नहीं करते या कोई निर्णय नहीं लेते, तो वह बिल स्वतः कानून बन जाएगा। यह लोकतंत्र के उस स्तंभ को खोखला कर देता है, जिसके आधार पर हमारी पूरी व्यवस्था खड़ी है।

क्या न्यायपालिका अब विधायिका और कार्यपालिका भी बन रही है?

वर्तमान में कुछ निर्णयों से ऐसा लगता है कि न्यायपालिका न केवल कानून की व्याख्या कर रही है, बल्कि कानून बनाने और कार्यपालिका की भूमिका निभाने की ओर भी अग्रसर है। यदि न्यायालय कानून बनाएंगे, कार्यपालिका का कार्य करेंगे, और उन पर कोई जवाबदेही भी नहीं होगी, तो यह संविधान के तीनों अंगों — विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका — के बीच संतुलन को तोड़ देगा।

यह सोचने योग्य विषय है कि क्या अब न्यायालय संसद से ऊपर हो गए हैं? क्या वे संविधान की उस भावना के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं, जिसमें सभी अंगों को अलग-अलग शक्तियाँ और ज़िम्मेदारियाँ दी गई हैं? यह स्थिति उस तंत्र को ही चुनौती देती है, जिसे भारत ने अपने लोकतांत्रिक विकास के लिए चुना है।

न्यायपालिका की पारदर्शिता पर उठते प्रश्न

जब देश के हर सांसद और चुनाव में खड़े होने वाले व्यक्ति को अपनी संपत्ति और देनदारियों की घोषणा करनी होती है, तो यह नियम न्यायपालिका पर क्यों लागू नहीं होता? न्यायाधीशों की संपत्ति की घोषणा का मामला भी वर्षों से लंबित है। कुछ न्यायाधीश यह जानकारी सार्वजनिक करते हैं, तो कुछ नहीं। यह असमानता लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध है, और इससे जनता में अविश्वास की भावना उत्पन्न होती है।

यदि न्यायपालिका ही पारदर्शिता में पीछे रहेगी, तो बाकी संस्थानों से ईमानदारी की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? लोकतंत्र की नींव पारदर्शिता और जवाबदेही पर टिकी होती है, और न्यायपालिका को इसमें अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए।

संविधान की मर्यादा की रक्षा का उत्तरदायित्व सभी पर

संविधान एक जीवित दस्तावेज है और उसकी मर्यादा की रक्षा का उत्तरदायित्व न केवल राष्ट्रपति और न्यायपालिका पर है, बल्कि संसद, मीडिया और जनता पर भी है। जब संविधान के किसी अंग को कमजोर किया जाता है या उसकी भूमिका को सीमित किया जाता है, तो यह पूरे लोकतांत्रिक ढांचे के लिए खतरे की घंटी होती है।

राष्ट्रपति की भूमिका केवल औपचारिक नहीं होनी चाहिए, बल्कि उन्हें संविधान की आत्मा और लोकतंत्र के रक्षक के रूप में देखा जाना चाहिए। राष्ट्रपति यदि किसी विधेयक पर विचार करने में समय लेते हैं, तो उसे अधिकारहीन मानना न केवल असंवैधानिक है, बल्कि असम्मानजनक भी है।

संवैधानिक संवाद की आवश्यकता

वर्तमान परिदृश्य में भारत को एक गहरे संवैधानिक संवाद की आवश्यकता है। यह संवाद केवल न्यायालय या संसद में सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि देश के नागरिकों को भी इसमें भाग लेना चाहिए। नागरिकों को यह समझना होगा कि यदि राष्ट्रपति का पद कमजोर होगा, यदि न्यायपालिका उत्तरदायित्व से बचती है, यदि विधायिका निष्क्रिय हो जाती है, तो लोकतंत्र का संतुलन बिगड़ जाएगा।

संविधान ने प्रत्येक संस्था को एक सीमित दायरा दिया है और उस दायरे में रहकर कार्य करने की अपेक्षा की गई है। जब कोई संस्था अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर कार्य करती है, तो टकराव उत्पन्न होता है। इसी कारण से राष्ट्रपति, संसद और न्यायपालिका के बीच स्पष्ट संतुलन आवश्यक है।

निष्कर्ष: संविधान की आत्मा को जीवित रखना आवश्यक

भारत का संविधान केवल एक दस्तावेज नहीं है, बल्कि यह देश की आत्मा है। इसे जीवित रखने के लिए हमें प्रत्येक संवैधानिक संस्था की मर्यादा और अधिकारों का सम्मान करना होगा। राष्ट्रपति का पद केवल प्रतीकात्मक नहीं है, बल्कि यह देश की लोकतांत्रिक चेतना का प्रतीक है।

हमें विचार करना होगा कि क्या हम लोकतंत्र के नाम पर संस्थाओं की शक्तियों का केंद्रीकरण कर रहे हैं? क्या न्यायपालिका की जवाबदेही तय होनी चाहिए? क्या राष्ट्रपति को केवल एक रबर स्टांप बनाकर हम संविधान के मूल ढांचे को नुकसान पहुँचा रहे हैं?

यह समय है आत्ममंथन का, संवाद का और संविधान की गरिमा को पुनः स्थापित करने का। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि भारत का लोकतंत्र केवल संस्थाओं का मेल नहीं, बल्कि एक संतुलित और उत्तरदायी प्रणाली है, जिसमें हर अंग अपनी मर्यादा में रहकर कार्य करता है।