वक्फ बिल पर केंद्र बनाम न्यायपालिका: किरेन रिजिजू का तीखा बयान

हाल ही में अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू का एक बयान देश की राजनीति और न्यायिक व्यवस्था को लेकर काफी चर्चा में है। उन्होंने वक्फ बिल को लेकर सुप्रीम कोर्ट के हालिया हस्तक्षेप पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि न्यायपालिका को संसद और सरकार के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। उनके इस बयान ने न केवल सरकार और न्यायपालिका के बीच की संवैधानिक सीमाओं की ओर ध्यान खींचा है, बल्कि वक्फ संशोधन बिल को लेकर भी एक नई बहस को जन्म दिया है।

सरकार और न्यायपालिका की संवैधानिक सीमाएँ

Centre vs Judiciary on Waqf Bill


भारत के संविधान ने स्पष्ट रूप से यह तय कर रखा है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—तीनों की अपनी सीमाएँ हैं। संसद कानून बनाती है, कार्यपालिका उन्हें लागू करती है और न्यायपालिका उनकी व्याख्या करती है। लेकिन जब न्यायपालिका संसद के बनाए कानूनों पर रोक लगाती है या कार्यपालिका के निर्णयों को पलट देती है, तब सत्ता के संतुलन को लेकर सवाल खड़े होते हैं।

रिजिजू ने अपने बयान में कहा कि "अगर सरकार न्यायपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने लगे तो क्या वह ठीक लगेगा?" यह सवाल न केवल विचारणीय है, बल्कि यह इस ओर भी संकेत करता है कि सरकार अब न्यायपालिका के सक्रिय हस्तक्षेप से असहज महसूस कर रही है।

वक्फ संशोधन बिल पर बहस

वक्फ अधिनियम में संशोधन को लेकर केंद्र सरकार ने जो विधेयक लाया है, वह अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक संपत्तियों की सुरक्षा और प्रबंधन से जुड़ा है। यह बिल इसलिए विवादास्पद बन गया है क्योंकि इससे जुड़े कई प्रावधानों को लेकर कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अपने अंतरिम आदेश में कहा कि जब तक केंद्र सरकार जवाब नहीं देती, तब तक वक्फ संपत्तियों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं किया जाएगा। साथ ही, कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि कोई नई नियुक्ति वक्फ बोर्ड और केंद्रीय वक्फ परिषद में नहीं होगी। इस पर प्रतिक्रिया देते हुए किरेन रिजिजू ने कहा कि यह बिल "सबसे ज्यादा स्क्रूटनी" से गुजरा है, और उस पर "1 करोड़ से ज्यादा सुझाव" आए हैं।

JPC की भूमिका और जनता की भागीदारी

वक्फ संशोधन बिल को लेकर सरकार का दावा है कि यह विधेयक संसद की संयुक्त संसदीय समिति (JPC) में सबसे ज्यादा बार समीक्षा के लिए प्रस्तुत किया गया। JPC की बैठकों की संख्या और जनभागीदारी इस बिल को लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बनाते हैं। ऐसे में जब सुप्रीम कोर्ट इसके कार्यान्वयन में रुकावट डालता है, तो सरकार को लगता है कि यह संसद की संप्रभुता का उल्लंघन है।

संसद बनाम सुप्रीम कोर्ट: एक संवैधानिक बहस

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में संसद सर्वोच्च कानून बनाने वाली संस्था है, लेकिन यह भी सत्य है कि संविधान की सर्वोच्चता न्यायपालिका के हाथों में है। जब सुप्रीम कोर्ट संसद के किसी कानून को संविधान विरोधी मानता है, तो वह उसे रद्द कर सकता है। परंतु, बार-बार जब न्यायपालिका संसद के कार्यों में हस्तक्षेप करती है, तो यह बहस खड़ी हो जाती है कि क्या इससे लोकतंत्र का संतुलन बिगड़ रहा है?

रिजिजू के बयान को इसी रोशनी में देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि "न्यायपालिका और सरकार को एक-दूसरे का सम्मान करना पड़ेगा, एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्र में न घुसें।"

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में वक्फ विवाद

वक्फ संपत्तियों को लेकर भारत में पहले से ही कई विवाद हैं। इनमें सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि क्या वक्फ संपत्तियों को सरकार या न्यायपालिका नियंत्रित कर सकती है? सुप्रीम कोर्ट के आदेशों से ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायपालिका इन संपत्तियों की वर्तमान स्थिति को बनाए रखने के पक्ष में है। वहीं सरकार का दावा है कि नया संशोधन पारदर्शिता और जवाबदेही लाने के लिए आवश्यक है।

निष्कर्ष: संतुलन और सहयोग की आवश्यकता

वर्तमान परिस्थितियों में जब देश सामाजिक, धार्मिक और संवैधानिक स्तर पर कई जटिलताओं से गुजर रहा है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि सभी संवैधानिक संस्थाएं—सरकार, न्यायपालिका और संसद—एक-दूसरे की सीमाओं का सम्मान करें। यह सच है कि न्यायपालिका का काम संविधान की रक्षा करना है, लेकिन संसद की भूमिका को नजरअंदाज करना भी सही नहीं।

केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू का बयान इसी दिशा में एक चेतावनी है कि अगर सत्ता के स्तंभ एक-दूसरे के क्षेत्र में अतिक्रमण करेंगे, तो इससे लोकतंत्र को खतरा हो सकता है। वक्फ बिल हो या कोई अन्य कानून, हर पहलू पर संतुलन और सहयोग से ही सही रास्ता निकाला जा सकता है।