"इस देश में किसी के खिलाफ भी FIR दर्ज की जा सकती है, यहां तक कि मेरे खिलाफ भी—but जजों पर FIR करने के लिए स्पेशल परमिशन की जरूरत होती है, ऐसा क्यों?"
यह सवाल हाल ही में भारत के उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ ने उठाया, जिससे न केवल मीडिया में हलचल मच गई, बल्कि यह विषय आम नागरिकों के बीच चर्चा का केंद्र बन गया। इस बयान ने न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन, पारदर्शिता और जवाबदेही पर फिर से बहस को जन्म दिया है।
न्यायाधीशों के खिलाफ FIR क्यों नहीं होती आम प्रक्रिया जैसी?
भारतीय संविधान में न्यायपालिका को स्वतंत्रता प्रदान की गई है ताकि वह निष्पक्ष निर्णय ले सके। इसी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए न्यायाधीशों को कुछ विशेष संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त है। भारत में जजों के खिलाफ FIR सीधे तौर पर दर्ज करना आसान नहीं है क्योंकि इससे न्यायपालिका की स्वायत्तता पर असर पड़ सकता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि न्यायाधीश कानून से ऊपर हैं।
जजों के खिलाफ FIR दर्ज करने के लिए क्या है प्रक्रिया?
भारतीय कानून में यह स्पष्ट नहीं है कि न्यायाधीशों के खिलाफ FIR दर्ज करना पूरी तरह से प्रतिबंधित है, लेकिन इसके लिए कुछ शर्तें और प्रक्रियाएं निश्चित हैं:
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संवैधानिक पद की सुरक्षा: भारत के उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के जजों को उनके कार्यकाल में कई कानूनी सुरक्षा दी जाती हैं। यह सुरक्षा इसलिए दी जाती है ताकि कोई राजनैतिक ताकत या अन्य प्रभावशाली व्यक्ति उन पर दबाव न बना सके।
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स्पेशल परमिशन की आवश्यकता: जजों के खिलाफ FIR या आपराधिक मुकदमा दर्ज करने के लिए भारत सरकार या संबंधित राज्य सरकार की पूर्व अनुमति लेनी पड़ती है। यह अनुमति संविधान के अनुच्छेद 124(4) और जजेस (इन्क्वायरी) एक्ट, 1968 जैसे कानूनों के अंतर्गत आती है।
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इंपीचमेंट की प्रक्रिया: अगर किसी न्यायाधीश पर भ्रष्टाचार, पक्षपात या अन्य गंभीर आरोप हैं, तो उनके खिलाफ संसद में महाभियोग (impeachment) की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है। अब तक भारत में किसी भी सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जज को महाभियोग द्वारा हटाया नहीं गया है, हालांकि कई जज इस्तीफा दे चुके हैं।
आम जनता को क्या अधिकार है?
यदि आम नागरिक को लगता है कि कोई न्यायाधीश भ्रष्टाचार, पक्षपात या अन्य आपराधिक गतिविधियों में लिप्त है, तो वह निम्नलिखित कदम उठा सकता है:
- शिकायत दर्ज करें: आप हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को शिकायत पत्र भेज सकते हैं।
- RTI (सूचना का अधिकार) के माध्यम से न्यायपालिका से संबंधित सूचनाएं प्राप्त की जा सकती हैं, हालांकि न्यायपालिका इस क्षेत्र में सीमित जवाबदेही रखती है।
- लोकसभा या राज्यसभा के सांसद से संपर्क करके महाभियोग प्रस्ताव की मांग रख सकते हैं।
उपराष्ट्रपति के बयान के मायने
उपराष्ट्रपति धनखड़ का यह बयान केवल एक राजनीतिक टिप्पणी नहीं, बल्कि लोकतंत्र की तीसरी शक्ति यानी न्यायपालिका की जवाबदेही पर एक सीधा सवाल है। जब देश का उपराष्ट्रपति कहता है कि "मेरे खिलाफ FIR हो सकती है लेकिन जजों के खिलाफ नहीं", तो यह संविधान के भीतर न्यायपालिका की जवाबदेही तय करने की जरूरत को रेखांकित करता है।
क्या न्यायपालिका को पूर्ण स्वतंत्रता के नाम पर पूरी छूट है?
नहीं, न्यायपालिका को संविधान में मिली स्वतंत्रता उत्तरदायित्व (Accountability) के साथ आती है। जब न्यायपालिका के निर्णय आम लोगों को प्रभावित करते हैं, तो उन निर्णयों और उनके पीछे के कारणों की समीक्षा होनी चाहिए। अगर न्यायपालिका में गड़बड़ी है, तो जनता को अधिकार होना चाहिए कि वह अपनी आवाज उठा सके।
निष्कर्ष
भारत का लोकतंत्र तीन स्तंभों पर टिका है—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। तीनों को एक-दूसरे की सीमाओं का सम्मान करना चाहिए। उपराष्ट्रपति के बयान ने एक जरूरी बहस को जन्म दिया है कि क्या जजों को भी आम नागरिकों की तरह जवाबदेह बनाया जाना चाहिए?
यह स्पष्ट है कि जजों पर सीधी FIR दर्ज करना मुश्किल जरूर है, लेकिन असंभव नहीं। सरकार की अनुमति, संसद की प्रक्रिया और न्यायिक समीक्षा जैसे रास्ते खुले हैं। फिर भी, समय आ गया है कि न्यायपालिका की पारदर्शिता और उत्तरदायित्व पर खुलकर चर्चा हो और सुधार की दिशा में कदम उठाए जाएं।
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