प्राइवेट स्कूलों की मनमानी: ₹50 MRP वाले प्रोडक्ट पर ₹90 का स्टिकर, अभिभावकों पर बढ़ता बोझ

आज के दौर में शिक्षा एक बुनियादी अधिकार से अधिक एक महंगी सेवा बनती जा रही है। खासकर प्राइवेट स्कूलों की मनमानी ने आमजन के लिए बच्चों को पढ़ाना एक कठिन चुनौती बना दिया है। उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले से एक चौंकाने वाला मामला सामने आया है, जहाँ एक नामी स्कूल ने ₹50 की एमआरपी वाले सामान पर ₹90 का स्टीकर चिपका कर अभिभावकों को जबरन खरीदने के लिए मजबूर किया।

देवरिया के 'लाइसेंस पब्लिक स्कूल' का वीडियो वायरल



यह पूरा मामला तब चर्चा में आया जब देवरिया जिले के लाइसेंस पब्लिक स्कूल का एक वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो गया। वीडियो में साफ देखा जा सकता है कि किताबों, स्टेशनरी या अन्य जरूरी सामानों पर असली एमआरपी को छुपाकर स्कूल प्रशासन ने खुद का नया स्टीकर चिपका दिया है, जो कि ₹90 दर्शा रहा है जबकि वास्तविक मूल्य मात्र ₹50 था। यह हरकत न केवल उपभोक्ता अधिकारों का उल्लंघन है बल्कि बच्चों की शिक्षा के नाम पर आर्थिक शोषण भी है।

अभिभावकों पर शिक्षा का आर्थिक भार

भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ शिक्षा को सुलभ और सस्ती बनाने की बात होती है, वहीं दूसरी ओर निजी स्कूलों की इस तरह की हरकतें पूरे सिस्टम पर सवाल उठाती हैं। स्कूलों में एडमिशन फीस, ट्यूशन फीस, यूनिफॉर्म, किताबें, स्टेशनरी और अन्य शुल्कों के नाम पर पहले ही भारी राशि वसूली जाती है। ऊपर से जब स्कूल खुद ही महंगे दामों पर सामान थोपते हैं, तो यह साफ तौर पर आर्थिक शोषण है।

कई अभिभावकों का कहना है कि उन्हें किताबें और स्टेशनरी स्कूल से ही खरीदने के लिए मजबूर किया गया, जबकि बाजार में वही सामान आधे से भी कम कीमत पर उपलब्ध था। यह न केवल अनैतिक है, बल्कि अवैध भी है।

प्रशासन की खामोशी और सिस्टम की मेहरबानी

सबसे चिंता की बात यह है कि ऐसे मामलों में प्रशासन की चुप्पी और निष्क्रियता भी सवालों के घेरे में है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अनुसार कोई भी विक्रेता किसी उत्पाद की वास्तविक कीमत से अधिक कीमत पर उसे नहीं बेच सकता। लेकिन जब स्कूल खुद ही यह काम कर रहे हैं और प्रशासन आंखें मूंदे बैठा है, तो यह सिस्टम की नाकामी को दर्शाता है।

इस तरह की घटनाएं सिर्फ देवरिया तक सीमित नहीं हैं। देशभर के छोटे-बड़े शहरों में कई प्राइवेट स्कूल ऐसे हैं जो किताबों, ड्रेस और अन्य जरूरी सामान पर भारी मुनाफा कमा रहे हैं। यह एक संगठित लूट बन चुकी है जिसे रोकने के लिए सख्त कानून और निगरानी की आवश्यकता है।

बच्चों की शिक्षा या व्यापार?

जब शिक्षा एक मिशन के बजाय एक बिजनेस बन जाए, तो उसका असर केवल बच्चों की पढ़ाई पर ही नहीं, बल्कि पूरे समाज पर पड़ता है। शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को आत्मनिर्भर बनाना होता है, लेकिन जब उनके अभिभावकों को हर साल हजारों-लाखों रुपये का खर्च उठाना पड़े, तो यह उद्देश्य खो जाता है।

सरकार को चाहिए कि वह ऐसे स्कूलों पर कड़ी कार्रवाई करे और एक पारदर्शी प्रणाली लागू करे जिसमें किताबें, ड्रेस और अन्य जरूरी चीजें खुले बाजार से खरीदने की अनुमति हो। साथ ही, हर स्कूल को अपनी फीस संरचना और सामग्री की कीमतें सार्वजनिक करनी चाहिए ताकि अभिभावकों को सही जानकारी मिल सके।

निष्कर्ष

शिक्षा को लेकर लोगों की अपेक्षाएं दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं, लेकिन जब स्कूल ही इसके नाम पर लूट मचाएं तो यह हमारे समाज के लिए एक चेतावनी है। अभिभावकों का यह हक है कि वे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दें, लेकिन इसके लिए उन्हें आर्थिक रूप से तबाह नहीं किया जा सकता। ऐसे में जरूरत है कि सरकार, समाज और मीडिया मिलकर इस मुद्दे पर गंभीरता से काम करें और शिक्षा को फिर से एक सेवा, एक अधिकार और एक मिशन की तरह देखा जाए — न कि मुनाफाखोरी का जरिया।